शीतला माता का इतिहास

आदेश सतगुरु जी !!
नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका हमारे Blog लोक देवालय  में यहाँ आपको भारत के अलग-अलग लोक देवताओ के बारे में जानने को मिलेगा। तो चलिए शुरू करते हैं

प्रिय पाठको आप लोगो ने शीतला माता का नाम अपने जीवन में बहुत बार सुना होगा। शीतला माता का गुरुग्राम  में एक बहुत ही भव्य मंदिर है। शीतला माता को अनेक समाजो में कुल देवी के रूप में पूजा जाता है। श्रद्धालु जन बच्चो के मुंडन तथा नवविवाहित जोड़ो की जात देने के लिए शीतला माता के मंदिर में जाते है। चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी अष्टमी को शीतला माता का पर्व मनाया जाता है। इसे बसौड़ या बसौरा भी कहते हैं। शीतला सप्तमी को भोजन बनाकर रखा जाता है और दूसरे दिन उसी भोजन को ही खाया जाता है। इस दौरान विशेष प्रकार का भोजन बनाया जाता है। कहते हैं कि इस ‍देवी की पूजा से चेचक का रोग ठीक होता है। आज हम आप लोगो के सामने शीतला माता का इतिहास लेके आये है। ( यह भी पढ़े :- हिन्दू धर्म की एक शक्तिशाली देवी - पाथरी वाली माता | हरियाणा की लोक देवी )



शीतला माता का इतिहास - हरियाणा की लोक देवी 

 शीतला माता के इतिहास के बारे में बहुत से श्रद्धालुओ के अलग अलग मत है जैसे की बहुत से श्रद्धालुओ का मानना है की गुड़गाँव के शीतला माता मन्दिर की कहानी महाभारत काल से जुड़ी हुई है। माना जाता है कि महाभारत युद्ध में गुरु द्रोणाचार्य के वीरगति प्राप्त होने पर उनकी पत्नी कृपि (शीतला माता) ने इसी स्थान पर ‘सती प्रथा’ द्वारा आत्मदाह किया था। उन्होंने लोगों को आशीर्वाद दिया कि मेरे इस सती स्थल पर जो भी अपनी मनोकामना लेकर पहुँचेगा, उसकी मनोकामना पूर्ण होगी। कहा जाता है कि गुड़गाँव में दो भाइयों पदारथ व सिंघा प्रारंभ से ही सदचरित्र व शील स्वभाव के थे। उस जमाने में दोनों भाइयों के पास हजा़ारों एकड़ जमीन थी। सिंघा की भजन वृत्ति और निठल्लेपन के कारण परिवार की औरतों में टकराव हुआ तथा जमीनों कें बंटवारे हो गए। सिंघा को 8 बिस्वा भूमि सौंप दी गयी। इस धरती पर बाद में अर्जुन नगर, भीम नगर, केम्प कालोनी, अर्बन स्टेट, शिवपुरी, शिवाजी नगर आदि आबाद हो गए। यह भूमि खाण्डसा तक फैली है, इसी भूमि पर गुरू द्रोणाचार्य का तालाब है। कहा जाता है कि गुरु द्रोणार्चाय ने यहां कौरवों व पाडवों को धनुर्विद्या व गजविद्या का प्रशिक्षण दिया था। सिंघा की भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन मां शीतला देवी ने स्वप्न में उसे दर्शन दिए और वर दिया कि जिसे भी तू स्पर्श करेगा वह स्वतः ही कष्ट मुक्त हो जाएगा। सिंघा भक्त अपने महल से निकल कर उस तालाब के पास पहुंचा और तपस्या में लीन हो गया। उसने एक कच्ची मढ़ी बनाकर देवी पूजन प्रारम्भ किया। कहावत है कि एक दिन तालाब की मिट्टी उठाते समय सिंघा को वह मुर्ति मिल गयी जिसे उसने मढ़ी में स्थापित कर दिया। यही बाद में माता शीतला देवी का मंदिर कहलाया। उल्लेखनीय है कि मुगल काल में हिन्दू मंदिरों व मूर्तियों को कुछ कट्टरपंथी बादशाह तालाबों में फिंकवा दिया करते थे। इसी भय से सूर्यास्त होने पर पुजारी मूर्ति को उठाकर अपने घर ले जाते रहे तथा सूर्योदय से पूर्व मूर्ति को स्नान इत्यादि कराके मंदिर में ले आया करते थे। कहा जाता है कि एक मुगल बादशाह ने कृपी माता की इस मूर्ति को तालाब में फिकवा दिया था। मूर्ति बाद में मिट्टी में दब गयी। समय ने करवट ली तथा सिंघा भक्त ने इस मूर्ति को बाहर निकलवाया और मढ़ी में रख दिया। (यह भी पढ़े - एक ऐसा लोक देव जो गलती पर साधक को भी मार दे - कलवा पौन । खरदौनी के लोक देवता )



वही दूसरी और कुछ श्रद्धालुओ का मानना है की यह शक्ति अवतार हैं और भगवान शिव की यह जीवनसंगिनी है। पौराणिक कथा के अनुसार माता शीतला की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा से हुई थी। देवलोक से धरती पर माता शीतला अपने साथ भगवान शिक के पसीने से बने ज्वरासुर को अपना साथी मानकर लाईं थी। तब उनके हाथों में दाल के दाने भी थे। उस समय के राजा विराट ने माता शीतला को अपने राज्य में रहने के लिए स्थान नहीं दिया तो माता क्रोधित हो गई। उस क्रोध की ज्वाला से राजा की प्रजा को लाल लाल दाने निकल आए और लोग गर्मी के मारे मरने लगे। तब राजा विराट ने माता के क्रोध को शांत करने के लिए ठंडा दूध और कच्ची लस्सी उन पर चढ़ाई। तभी से हर साल शीला अष्‍टमी पर लोग मां का आशीर्वाद पाने के लिए ठंडा भोजन माता को चढ़ाने लगे। मान्यता है कि शीतलाष्टक स्तोत्र की रचना स्वयं भगवान शिव जी ने लोक कल्याण हेतु की थी। इस पूजन में शुद्धता का पूर्ण ध्यान रखा जाता है। इस विशिष्ट उपासना में शीतलाष्टमी के एक दिन पूर्व देवी को भोग लगाने के लिए बासी खाने का भोग बसौड़ा उपयोग में लाया जाता है। 

शीतला माता का हिन्दू समाज में महत्व 



शीतला माता एक प्रसिद्ध हिन्दू देवी हैं। इनका प्राचीनकाल से ही बहुत अधिक माहात्म्य रहा है। स्कंद पुराण  में शीतला देवी का वाहन गर्दभ बताया गया है। ये हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन्हें चेचक आदि कई रोगों की देवी बताया गया है। इन बातों का प्रतीकात्मक महत्व होता है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है। शीतला माता के संग ज्वरासुर- ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी - हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती - रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है।कुछ लोग शताक्षी देवी को भी शीतला देवी कह कर संबोधित करते है। शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना के लिए यह मंत्र बताया गया है:

वन्देऽहंशीतलांदेवीं रासभस्थांदिगम्बराम्।।
मार्जनीकलशोपेतां सूर्पालंकृतमस्तकाम्।।

अर्थात
गर्दभ पर विराजमान, दिगम्बरा, हाथ में झाडू तथा कलश धारण करने वाली, सूप से अलंकृत मस्तक वाली भगवती शीतला की मैं वंदना करता हूं। शीतला माता के इस वंदना मंत्र से यह पूर्णत: स्पष्ट हो जाता है कि ये स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं। हाथ में मार्जनी झाडू होने का अर्थ है कि हम लोगों को भी सफाई के प्रति जागरूक होना चाहिए। कलश से हमारा तात्पर्य है कि स्वच्छता रहने पर ही स्वास्थ्य रूपी समृद्धि आती है।
मान्यता अनुसार इस व्रत को करनेसे शीतला देवी प्रसन्‍न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं।

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